गुनाहों का शहर - 1
"साला!! पर्स के साथ-साथ मेरी पहचान भी ले गया"
"क्या हुआ बाबू जी"
"अरे! तुम रिक्शा चलाओ न यार। तुमको नहीं कहा।"
नाम- पुरुषोत्तम मिश्रा। उम्र- 26 पार। काम- एस.आई.। दूसरे शहर आने की वजह - ट्रांसफर। पुरुषोत्तम सरकारी काम में बाधा पहुचाने का जिम्मेदार था। बाधा से तात्पर्य नेता-मंत्री से ज़बान लड़ाना। उनकी पूँछ न बनना। शराब न पीना। न साथी कर्मियों को पीने देना। सीधे टाइप का होना। स्टेशन से उसे किराये के मकान तक पहुचने में पंद्रह मिनट लगे। कुछ रुपये जो ऊपर की जेब में छुपे बैठे थे, वो रिक्शा वाले को चुकता किये। मकान के नाम पर एक रूम और आंगन। बाकी काम साथ में, अर्थात एक के बाद एक करो।
पुरुषोत्तम का स्वागत एक अल्हड़ तेज़ तर्रार लड़के ने किया जिसे मोहल्ले में सब 'बंड्या' बुलाते है। बंड्या कमरा दिखाकर चलता हुआ। पुरुषोत्तम ने अपना एक बैग 'जिसमे लगभग उसका सारा ही सामान था' को एक जगह रखा। और रूम में झाड़ू लगाकर अपनी एक पाँच फुट चौड़ी, छः फुट लंबी चटाई बिछाकर उसपर बैठ गया।
"मेरा ए.टी.एम. भी पर्स में ही रखा था, कुछ कर यार, यहां तेरा कोई दोस्त या रिश्तेदार हो तो उसके खाते में भेज दे।" उसने अपने किसी परिचित से मोबाइल पर बात की।
पुरुषोत्तम स्वभाव से पुलिसिया नहीं था। अपनी ज़िम्मेदारी को उसने केवल सरकारी लाभ नहीं समझा, इसके उलट वह भ्रष्ट अधिकारियों के खिलाफ बोलने में भी नहीं चूकता। फलस्वरूप ट्रांसफर को हमेशा तैयार होता। "दरवाज़ा खोलो साब" बंड्या की आवाज़ आई। पुरुषोत्तम ने दरवाज़ा खोला।
"ये आपका ज़रूरत का सामान, ब्रश, पेस्ट, साबुन,
और...."
"ये सब है मेरे पास...थैंक यू"
"सब है? नहीं साब ये लेना पड़ेगा, आपको"
"क्यों लेना पड़ेगा भई... मैं.."
"अरे साब फोकट में रख लो। लो!"
"अरे!! लेकिन..."
बंड्या सामान थमाकर चला गया। "कमाल है" पुरुषोत्तम सोचता हुआ अंदर लौटा। दोपहर के 2 बजकर 23 मिनट। उसने समय देखा। सोने की कोशिश की मगर नींद तो गायब है। रिपोर्टिंग भी कल करना है। उसने कहीं चहल-कदमी कर आने की सोची। पुरुषोत्तम दरवाज़े पर ताला लगाकर निकल पड़ा। अभी कुछ दूर पहुँचा ही था कि बंड्या भागता हुआ बगल से गुज़रा "भागो साब भागो"
"भागो?! क्या हुआ" पुरुषोत्तम कुछ समझ पाता उस से पहले ही दो हवलदार उसे दोनो बाज़ुओं से पकड़ घसीट रहे थे।
"सुनो!! मैं...!"
"जो कहना है, अंदर कहना..."
पुरुषोत्तम की एक न सुनी गई, उसके साथ कुछ दस-पंद्रह लोगों को पकड़ा गया था। हवालात में पुरुषोत्तम चरस सप्लाई करने वालों में दुबककर बैठा था। उसका मोबाइल उस से छीन लिया गया, दस-पंद्रह लोगों के शोर में उसकी बात कोई सुनने को तैयार नहीं था।
"चुप हो जाओ..सब के सब" वो इतनी ताकत से चिल्लाया कि सामने कुर्सी पर बैठे इंस्पेक्टर को उठकर आना पड़ा।
"अबे ऐ! ज़्यादा अकड़ है तेरे में...एक उल्टे...."
"पुरुषोत्तम! एस. आई. पुरुषोत्तम मिश्रा!"
"ओह्ह...सॉरी,! हवलदार..." इंस्पेक्टर ने तुरंत पुरुषोत्तम को बाहर निकालने का आदेश दिया।
"तकलीफ़ के लिए माफ़ी, महीने में एक बार उस इलाके में दबिश देना पड़ती है, मगर ये लोग फिर भी नहीं सुधरते। यहां से निकलकर फिर यही धंधा। इनके जो रखवाले है.." इंस्पेक्टर ने व्यंगात्मक गला साफ किया "उनका कहना है, कौनसा बड़ा अपराध कर रहे है, दो चार पूड़ियाँ ही तो इधर-उधर कर रहे है"
"इनके रखवालों से मतलब?"
"मतलब तुम खूब जानते हो। फिर भी नेता, मंत्री, रईस खानदान वालें तक इनसे जुड़े है"
"कोई तो समझदार ऑफिसर होगा यहां?"
"समझदार बनने की कोशिश जिन्होंने की वो या तो
कहीं लापता हो गए, या अपनी जान से हाथ धो बैठे। फिर अब कोई इनके खिलाफ कुछ भी करने से डरता है।"
"इनकी पहुच किसी राष्ट्रीय स्तर के गैंगस्टर या मंत्री तक मालूम होती है?"
"यहीं समझ लो। हम कि जिन्हें अपने घर-परिवार की चिंता होती है, वे खामोशी से अपना काम करने में ही भलाई समझते है।"
"मैं समझ सकता हूँ" पुरुषोत्तम ने कहा।
"ट्रांसफर!?" इंस्पेक्टर ने सवाल किया।
"हा... आठवी बार" पुरुषोत्तम ने खड़े होते हुए कहा।
इंस्पेक्टर ने भी खड़े होकर पुरुषोत्तम की ओर हाथ बढ़ाया "इंस्पेक्टर राकेश" पुरुषोत्तम ने मुस्कुराकर उस से हाथ मिलाया और वहां से रवाना हो गया।
***
पुरुषोत्तम के लौटने तक शाम के सात बजकर दस मिनट का समय हो चला था। हल्का अंधेरा होने लगा था। एक बार को तो वह किसी दूसरी गली में जाने को हुआ, मगर कुछ निशान उसने अपने कमरे को जाते देख रखे थे। जिसे आदतन पुलिसिया नज़र कह सकते हैं।
कमरे के नज़दीक पहुचकर वह एक क्षण चौंका, उसने देखा कमरे का ताला खुलकर लटक रहा है। वह धीरे कदमों से पहले थोड़ा आगे बढ़ा, फिर अचानक अंदर घुसा। एकाएक कदमों की आवाज़ हुई और एक लड़की उस से टकराकर गिर पड़ी। पुरुषोत्तम भी एक क्षण को यहां-वहां हुआ, उसने तुरंत होश संभाले।
"ऐ लड़की! कौन है तू! यहां क्या कर रहीं है"
"क्या साब! आपने तो डरा ही दिया। ये सामान" उसने अपने हाथों में मौजूद सामान, ब्रश, पेस्ट, तेल की शीशी, दिखाया "लेने आई थी मैं"
"ऐ! ठीक से खड़ी हो, ज़्यादा होशियार मत बन। सच-सच बता यहां क्यों आई थी!! चोरी करने आई थी न यहां" पुरुषोत्तम ने कड़क स्वभाव में कहा।
"अरे! अरे! नहीं साब चोरी नहीं। अपुन आठ कमरों की मालकिन! अब फ़र्ज़ बनता है न कि किरायेदार को किसी चीज की कमी न हो। और जिस चीज की उसे ज़रूरत न हो वो वापस लेलो। मैं बंड्या को बोली थी लेके आ, पर वो बोला कि बड़ा खड़ूस....! वो क्या है न साब ये छोटी चीजे भी हमारे लिए...."
"ठीक है! ठीक है! तुम ये सब ले जाओ...और खाने का इंतज़ाम...!!" पुरुषोत्तम को कोई डेढ़ी या संदेहजनक बात न लगी।
"वो सब हो जाएगा साब, अभी दस मिनट में आपका खाना आ जायेगा। गर्मा-गरम। वो है न अपना डब्बे वाला जादू, बड़ा अच्छा खाना बनाता है"
"जादू!" पुरुषोत्तम ने पूछा।
"हा साब! उसके हाथों में जादू है न तो जादू"
"ठीक है। अब तुम जाओ, मुझे कुछ ज़रूरत हुई तो मैं बंड्या को कह दूंगा"
"ठीक है साब" उसके कहने के बाद पुरुषोत्तम ने दरवाज़ा बंद कर दिया। अभी कुछ कदम चला ही था कि दरवाज़े पर फिर से दस्तक हुई। उसने दरवाज़ा खोला।
"साब ये चाबी, अब मेरे पास कोई चाबी नहीं ये दूसरी चाबी भी आप रखो। आप शरीफ आदमी लगते हो। एक बात बोलू साब" उसने पास आकर फुसफुसाते हुए कहा "साब यहां न ज़्यादा शरीफ बनके ना रहना"
"अच्छा" पुरुषोत्तम ने भी अपनी गर्दन और कानों को आगे किया।
"हा साब! यहां के लोग कपड़े-लत्ते भी नहीं छोड़ते। एक दिन तो बंड्या की बनियान ही चोरी हो गई थी"
पुरुषोत्तम से अब हंसी रोकी नहीं गई, वह बे-इंतेहा हंसने लगा। ज़ोरो-ज़ोरो से हंसने से उसके पेट में दर्द शुरू हो चुका था।
"क्या साब आपको मज़ाक लग रहा। अपुन जाती है यहां से। कोई काम हो तो बंड्या या मुझे बोलने का।"
पुरुषोत्तम ने गहरी सांस छोड़ी। एक पल वो उस लड़की को देखता रहा।
"तुम्हारा नाम क्या है" पुरुषोत्तम ने पूछा।
"मंजरी! साब"
"मंजरी!! तुम्हारे नाम का मतलब पता है तुम्हे" पुरुषोत्तम ने सवाल किया।
"नहीं साब वो तो नहीं पता" उसने कहा।
"कोई बात नहीं..। अरे! देखों बंड्या खाना लेकर आ गया।" मंजरी के पीछे बंड्या आता नज़र आया।
"ठीक है, अब तुम लोग जाओ। ज़रूरत पड़ी तो बता दूंगा" पुरुषोत्तम ने टिफ़िन लिया। और दरवाज़ा बंद कर लिया। पुरुषोत्तम अब उन उच्च पदों पर बैठे लोगों के बारे में सोच रहा था, जो इन चरस बेचने वालों को बचा रहे हैं। उसका अनुमान था, कि ज़रूर कोई हाई प्रोफाइल पर्सनेलिटी इससे जुड़ी है।
अगर जुड़ी है तो वो इन्हें हवालात तक भी क्यों जाने देते हैं। क्या इसके पीछे भी कोई वजह हैं। उसने अपना खाना ख़त्म किया और हाथ मुँह धोकर अपनी चटाई पर लेट गया। कल उसकी इस शहर में पहली हाज़री होने वाली है। हाई प्रोफाइल केस और मंजरी के बीच पूल पर झूलते पुरुषोत्तम की आंखे कब लग गई पता ही नहीं चला।
***
"हवलदार जॉन रिपोर्टिंग सर!" पुरुषोत्तम को एक अधेड़ अवस्था का आदमी अपने सामने खड़ा दिखा। जिसके सिर के कोनो के और दाढ़ी के बाल कुछ-कुछ सफ़ेद दिख रहे थे।
"जॉन...!! ये नाम तुम्हें किसने दिया?"
"सर मैं पहले! दो दशक पहले बड़ा टिपटॉप रहता था। और जोनिवाकर अपना फेवरेट ब्रांड था। तो लोगों के मुँह पर यह नाम चढ़ गया। मुझे सब जॉन कहने लगे तब से मैं जॉन..."
"जॉन, मैं पुरुषोत्तम। एस. आई । क्या तुम उस मोहल्ले में गए हो। जहां चरस सप्लाई....."
"बस सिटी के पास। काला मोहल्ला। दूसरी गली!"
पुरुषोत्तम की बात पूरी होने से पहले जॉन ने कहा।
"जितनी जानकारी तुम्हें हासिल हो मुझे बताओ। और ज़रूरत पड़ी तो हर वो मदत मुझसे मांग सकते हो"
"सर बस इतना ही जानता हूँ। कि उस गली में कुछ लोग चरस बेचते है। और हम उन्हें पकड़ कर दो घंटे हवालात में रखते है, उसके बाद उन्हें छोड़ने का ऑर्डर आ जाता है। कई सालों से यही होता आ रहा है।"
"कौन इन्हें छुड़वा लेता है?"
"सर वो मुझे नहीं पता। लेकिन ज़रूर कोई बड़ा हाथ है।" जॉन ने कहा।
"चलो एक राउंड लगा आए"
दोनों थाने से निकल कर बाहर आए। बाइक पर सवार होने ही वाले थे कि एक सफ़ेद स्कोर्पियो उनके सामने आकर रुकी। उसमें से एक लगभग तीस की उम्र का आदमी निकला।
"जय हिंद सर" जॉन ने और उसके बाद पुरुषोत्तम ने सैलूट करते हुए कहा।
डी. एस. पी अंदर जा चुका था। पुरुषोत्तम और जॉन भी उसके पीछे अंदर पहुचे।
"एस. आई. पुरुषोत्तम रिपोर्टिंग सर" पुरुषोत्तम ने छाती निकालकर बड़े इत्मिनान से कहा।
"पुरुषोत्तम!! बड़े कर्तव्यनिष्ठ हो तुम तो। आठवी बार ट्रांसफर!।"
पुरुषोत्तम ने देखा डी. एस. पी. के छाती पर लगी प्लेट पर 'नरेश सिंह तोमर' चमक रहा है। स्वभाव समझने में पुरुषोत्तम को अभी परेशानी हो रहीं थी। नरेश को तोल पाना उसे संभव नहीं लग रहा था। अनुमान भी गलत हो सकता था।
"और...पुरुषोत्तम भाई! क्या हाल" नरेश ने टेबल पर अपना आधा वजन देते हुए कहा।
"सर वो...काला मोहल्ला..."
"गुड आईडिया। चलो! हवलदार गाड़ी निकालो।" नरेश तेज कदमों से बाहर निकला। जॉन और पुरुषोत्तम एक दूसरे का मुँह ताकते रह गए।
उनकी टीम काला मोहल्ला पहुंची। फिरसे आठ-दस लोगों को पकड़ कर लाया गया। उन्हें एक-दो घंटे हवालात में रखा गया। फिर नरेश की फ़ोन पर किसी से बात हुई और उन लोगों को छोड़ दिया गया।
"अब ख़ुश! एस. आई. साहब!" नरेश ने व्यंग्यात्मक तरीके से कहा।
पुरुषोत्तम से कुछ न कहा गया। वह अपने अगल-बगल देखता रहा। और वहां से बाहर निकल आया। उसके पीछे जॉन भी आया।
"जॉन तुम्हारा फेवरेट खाना क्या है। पीना नहीं सिर्फ खाना।" पुरुषोत्तम ने कहा।
"सबकुछ है सर! जो मिलता है खा लेते है"
"यहां आस-पास कोई होटल है?"
"अरे! एक नहीं बहुत है सर! और न हुआ तो खुलवा देंगे" जॉन की बात सुनकर पुरुषोत्तम मुस्कुराया।
दोनों जीप में सवार हो चल पड़े।
दोनों पास के एक होटल में पहुँचे। और दोपहर का खाना खाया।
"जॉन! तुम और क्या जानते हो। चरस सप्लाई के बारे में।"
"सर मैं कुछ नहीं जानता। जो अभी हमने खाया इस मज़ेदार खाने की कसम।"
"डी.एस.पी सर का इस तरह पेश आना इस बात का संकेत है कि मैं इस टॉपिक पर ध्यान न दूँ, या मैं इनका कुछ बिगाड़ नहीं सकता" पुरुषोत्तम बोला।
"सर ये नरेश सर भी कुछ कम नहीं। लगता है ये भी उन लोगों से मिले है। है न सर! आपको भी यहीं लगता है न?" जॉन ने सवाल किया।
"नहीं मुझे ऐसा नहीं लगता। एक समझदार आदमी ही इशारों में अपनी बात कह सकता है। जिस तरह उन्होंने सारा प्रदर्शन किया उस से यहीं लगा कि वो मुझे ही समझाना चाहते थे। वैसे कौन हो सकता है। जो इस बारे में कुछ और जानता हो।?"
"अरे! सर उस मोहल्ले में है न वो, भाई-बहन बंड्या और मंजरी वो बता सकते है आपको। कहे तो मंजरी को हाज़िर कर देता हूँ सर..." जॉन मुस्कुराया।
"देखो जॉन! अपनी हद में रहो। तुम एक ईमानदार और अपनी ड्यूटी का पालन करने वाले एस.आई के साथ हो। इस तरह की बेहूदा हरकत करने की सोचना भी मत।"
"सॉरी सर" जॉन का सिर छाती तक लटक चुका था।
"और, लड़कियों और औरतों की इज़्ज़त करना सीखो।
अपनी उम्र का तो ख्याल करो।" जॉन कुछ न बोल। दोनों वहां से रवाना हुए।
***
दूसरे दिन शाम आठ के आस-पास पुरुषोत्तम अपने कमरे पर लौटा। उसने मंजरी को आवाज़ लगाई। और कहा कि आज का खाना साथ में खाते है। मंजरी और बंड्या पुरुषोत्तम के कमरे में पहुँचे। तीनो ने साथ मिलकर रात का खाना खाया।
"साब आप तो पुलिस वाले है।" मंजरी ने कहा "इसमे हमे फायदा है साब, अब कोई चोरी करने नहीं आएगा"
"तुम अपने बारे बताओ! मंजरी, बंड्या। यहां कैसे आए! तुम्हारा परिवार कहाँ है?"
"अपुन और बंड्या को यहां आकर दस साल हो गए। ये जगह अपुन की माँ ने अपने नाम की थी। सब कुछ बना बनाया। उन्हें ये जगह कैसे मिली ये अपुन को नहीं पता।
माँ को एक बार सिर में चोट लगी थी। खूब पैसा खर्च किया साब, पर माँ नहीं बच सकी। परिवार के नाम पर मेरे पास ये बंड्या ही है। अपना सबकुछ है बंड्या।
"तुम्हारे पिता?" पुरुषोत्तम ने पूछा।
"अपुन को नहीं मालूम साब। माँ ने बताया नहीं। और न हमने पूछने की हिम्मत की। माँ बड़े कड़क स्वभाव की थी साब। वो क्या कहते है उसे.....बड़ी अफ़सर थी।" मंजरी ने कहा।
"तुम इस हाल में?! तुम्हारी माँ तो अच्छे पदपर और एक सरकारी सेवक थी। फिर भी इस जगह इस तरह...?"
पुरुषोत्तम ने सवाल किया।
"जिस इलाके में हम रहते थे साब वहां दिन दहाड़े गुंडा गर्दी होती थी। सुबह गोलियों की आवाज़, रात को गोलियों की आवाज़। माँ को धमकियां मिलती थी, कि कहीं और चले जाओ, नहीं तो तुम्हारे घर को बम से उड़ा देंगे। ऐसे कई और डर के कारण माँ ने हमे यहाँ भेज दिया था।" मंजरी ने कहा।
"उनके सिर पर चोट कैसे लगी थी।"
"साब हमारे पुराने घर के बगल में एक मंजिल बनाने का काम चल रहा था। माँ वहां से गुज़री तो एक ईंट उनके सिर पर गिर गई थी।"
"तो तुम लोग यहां काफ़ी समय से रहते हो। तो बंड्या कब से कर रहा है ये चरस का धंधा।"
"क्या!!" बंड्या के पसीने छूट गए। "नहीं साब अपुन चरस विरस का धंधा नहीं करता।" बंड्या ने कहा।
"अरे! साब" मंजरी बीचमें बोल पड़ी "आपको तो पता है साब, पुलिस वाले किसी की नहीं सुनते। इस लिए यहां जो चरस का धंधा नहीं भी करता हो उसे भी भागना पड़ता है।"
"इन चरस बेचने वालों के बारे में तुम लोग क्या जानते हो?" पुरुषोत्तम ने पूछा।
"साब इन सबके पीछे उस मंत्री का हाथ है, क्या नाम है बंड्या उसका...वो....! अर्जुन.… अर्जुन सिंह।"
"अर्जुन सिंह!" तुम जानती हो इन्हें ये कौन है" पुरुषोत्तम ने कहा।
"हा मंत्री है"
"ये हमारे राज्य के मुख्यमंत्री है।" पुरुषोत्तम ज़ोर देते हुए बोला।
"होंगे साब, अपुन को क्या!"
"ये बात तुमने ज़रूर हवा में सुनी होगी। जिसका कोई मतलब नहीं बनता। ये लो तुम्हारा किराया" पुरुषोत्तम ने उसे किराया देते हुए कहा।
"थैंक यू साब" मंजरी जाते हुए बोली "और साब अपुन हवा में बात नहीं करती, आप अपनी छान-बिन करके पता लगा सकते है।"
"मैं सोच रहा था तुमसे मुझे कोई मदत मिल जाएगी।"
"साब कायको इस ज़मीन को खोद रहे हो" बंड्या ने कहा " यहाँ से कुछ नहीं निकलने वाला, खाली मिट्टी के सिवाय।"
"ठीक है! तुम जाओ।" मंजरी और बंड्या वहां से चले गए। पुरुषोत्तम सोचने लगा। अगर सचमें मुख्यमंत्री जी का इसमें हाथ है, तो यह सिर्फ चरस का मामला नहीं हो सकता। इसमें और भी ग़ैर कानूनी धंधे शामिल होंगे।
उसने बैग में से एक कागज़ निकाला और उसपर दो नाम लिखे। पहला नरेश सिंह तोमर। और दूसरा अर्जुन सिंह।
***